भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पत्तल-भर ज़मीन / कुमार कृष्ण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बारिश में भीगता आदमी
कुछ नहीं माँगता
उसे मिल जाए-
छोटा-सा छाता
नन्हा-सा छप्पर
बर्फ में चलते आदमी को मिल जाए-
परात-भर आग
सिखर दोपहर में मिल जाए-
पत्ता-भर छाँव
भूख में मिल मिल जाए-
कटोरा-भर छाछ
भीड़-भरी यात्रा में मिल जाए-
पाल्थी-भर जगह
लम्बे इन्तजार में मिल जाए-
आँख-भर चेहरा
सपनों को मिल जाए-
झपकी-भर नींद
पत्तल-भर ज़मीन भी बहुत है-
यदि मिल जाएँ प्यार भरी हथेलियाँ।