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पत्ता पत्ता सन्यासी है / शैलेन्द्र सिंह दूहन
Kavita Kosh से
पत्ता पत्ता सन्यासी है,
मजबूरी में उपवासी है।
बेबस है शाखों की लचकन
सहमा-सहमा सारा जीवन,
बूढ़े बरगद की गर्दन में
आदर्शों की अब फाँसी है।
पत्ता-पत्ता सन्यासी है।
लम्हे सदियाँ निगल रहे हैं
गिरगिट की ज्यों बदल रहे हैं,
सपनों के किरचों पे लटकी
आशा राहों की दासी है।
पत्ता-पत्ता सन्यासी है
जड़ बिन जड़ सम्बन्ध हुए हैं
झूठे सब अनुबंध हुए हैं,
भावों की तुर्पाई उखड़ी
केशव का निधिवन बासी है।
पत्ता-पत्ता सन्यासी है,
भूखा बचपन छोह करे है
पेट पकड़ कर द्रोह करे है,
सूरज के हैं कंधे टूटे
रोटी रिश्वत की प्यासी है।
पत्ता-पत्ता सन्यासी है।
मन के सब उद्गार बिके हैं
गुलशन के आधार बिके हैं,
सब कुछ सस्ता कुर्सी महँगी
क्या काबा है? क्या काशी है?
पत्ता-पत्ता सन्यासी है।