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पत्थरों की नदी बह गई शहर में / शीन काफ़ निज़ाम

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पत्थरों की नदी बह गई शहर में
जाने कैसी हवा फिर चली शहर में

दोनों अतराफ़<ref>दोनों तरफ़ के</ref> के लोग ज़ख़्मी हुए
पत्थरों की कहाँ थी कमी शहर में

सौ बरस के जहाँ ज़ेह्न-ए-अत्फ़ाल<ref>बालकों का मस्तिष्क</ref> हैं
रहते हैं दोस्तों हम उसी शहर में

पीर<ref>सोमवार</ref> से शम्बा<ref>शनिवार</ref> तक दोस्ती की हदें
बन गया क्या से क्या आदमी शहर में

इन्क़िलाबात के सरगना<ref>सरदार</ref> बन गए
चाय की मेज़ के फ़ल्सफ़ी<ref>दार्शनिक</ref> शहर में

मुख़्तलिफ़<ref>विभिन्न</ref> रंगो-बू के हैं कपड़े मगर
जिस्म की बास है एक-सी शहर में

क़तरा-क़तरा गिरी रात आकाश से
लम्हा-लम्हा बिखरती गई शहर में

शब्दार्थ
<references/>