पत्थरों पर बैठी स्त्री / विनीत उत्पल
कुतुब मीनार के अहाते में
बिखरे पत्थरों पर बैठी एक स्त्री
चुपचाप विचारमुद्रा में लीन
सोचती कुतुब के अतीत को
और सोचती अपने अस्तित्व को
उन पत्थरों पर खुदे थे निशान
उन पत्थरों पर खुदी थी आकृति
उसी तरह जैसे स्त्री के मन में
उठ रहे बवंडर और अंतरात्मा की आवाज
चहुँओर था शांत वातावरण
धूप सिर पर थी
चेहरे था आंचल से ढंका
सोच रही थी वह स्त्री खंडहर परिसर को लेकर
जिस तरह सदियों से स्त्री का न रही थी पहचान
बस जीती रही खंडहर बनकर
पुरूष ने दासियाँ बनाई
कठपुतली समझ नाच नचाई
वह तो थी बस एक तूफ़ान
जो थमने पर छोड़ गई थी
एक खंडहर
आज भी मौजूद हैं उसके निशान
कुतुबमीनार के आहाते में वह आई थी एक दिन
जगमगा रहा था पूरा परिसर
लेकिन आक्रामक और दकियानूसी पुरूष और उनकी मुद्राएँ
बना दी उसे एक तूफ़ान
और इसी का परिणाम है
आज का वह कुतुबुद्दीन का खंडहर
फ़िर सदियों बाद
अनंतर कथा और कथानक के बीच
आज आई थी वह इसी खंडहर में
बैठी थी उस पत्थर पर
जो चश्मदीद गवाह रहा था
उसकी तेज का, उसकी आस्था का
उसके विश्वास का
और उसकी भावभंगिमा का
वह पत्थर भी आज सालों बाद
उस स्त्री के साथ चिंतनीय मुद्रा में था
जब एक स्त्री बन जाती है तूफ़ान
न केवल नगर-नगर बड़े-बड़े शूरमाओं के
ध्वस्त हो जाते हैं शान
खंडहर हो जाता है सारा जहाँ
और बस बाकी बचता है
एक खंडहर
जो किसी न किसी को
लगता है अपना-सा।