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पत्थर, पेड़ और परिन्दे / अंकुर बेटागिरी
Kavita Kosh से
पत्थर पैदा होते हैं
बेज़ुबानी में बिताते हैं सारा जीवन
बिना प्रतिरोध
पेड़ पैदा होते हैं
ख़ामोश खड़े रहते हैं जेठ की धूप में
और बोलते हैं तभी
जब बोलने को कहे हवा का कोई झोंका
परिन्दे पैदा होते हैं
उड़ते-फिरते हैं गर्मियों में, ठंड में और बरसात में
और थक कर बैठ जाते हैं
जानकर कि अब और नहीं उड़ा जाएगा उनसे
आदमी सब देखता है
पत्थर, पेड़ और परिन्दों को
तय नहीं कर पाता
आख़िर किसे दे अपने दिल में जगह।
अनुवाद : राजेन्द्र शर्मा