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पत्थर-दिल पूँजी के दिल पर / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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पत्थर-दिल पूँजी के दिल पर
मार हथौड़ा
टूटे पत्थर
कितनी सारी धरती पर
इसका जायज़ नाजायज़ कब्ज़ा
विषधर इसके नीचे पलते
किन्तु न उगने देता सब्ज़ा
अगर टूट जाता टुकड़ों में
बन जाते
मज़्लूमों के घर
मौसम अच्छा हो कि बुरा हो
इस पर कोई फ़र्क़ न पड़ता
बिन बारूद
धमाके के बिन
आसानी से नहीं उखड़ता
ख़ुद उखड़े तो
कितने मुफ़्लिस
मरते इसकी ज़द में आकर
छूट मिली इसको तो
सारी हरियाली ये खा जाएगा
नाज़ुक पौधों की कब्रों पर
राजमहल ये बनवाएगा
रोको इसको
वरना इक दिन
सारी धरती होगी बंजर