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पत्थर का शहर / उर्मिल सत्यभूषण
Kavita Kosh से
पत्थर का यह शहर है
पत्थर हुआ बशर है
यहाँ ज़िंदगी के मेले
फिर भी है सब अकेले
किसको भला खबर है
मरमर के रोज़ जीते। हंस हंस के लोग पीते
मिलता बहुत ज़हर है
दीवारें चढ़ गई हैं। रफ्तारे बढ़ गई हैं
अंधा हुआ सफर है।
ओढ़े हुये मुखौटे। सारे बड़े और छोटे
बड़ी काईयाँ नज़र है
कीड़ों समान कुचली
कलियों समान मसली
छोटी-बड़ी उम्र है।
चिड़ियों के चहचहों की
बच्चों के कहकहों की
किसको भला खबर है?
आओ, इसे गलायें
पानी इसे बनाये
प्यासा बहुत नगर है।