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पत्थर की लकीर / निरुपमा सिन्हा

तुम्हारी हर बात सही ही होती है
यही सोच
मैं यकीन करती रही
भूलने पर
तुमने कहा था
"सब कुछ भूल जाता है इंसान धीरे -धीरे”
हाँ! अब
मैं भी भूलने लगी हूँ
वो बारिश!
जहाँ छपाक से गिरी थी यादें
 उछला था
पानी दोनों के चेहरे पर
खुल नहीं रही थी आँखे
हमारी तुम्हारी
तभी भूले से पकड़ लिया था
एक दूसरे का हाथ
फिर झटक दिया
आँखों में लगता हुआ पानी..
चढ़ती हुई सीढियाँ
उतरती हुई मंदिरों के आले से
झाँकती,
तुम्हारी आवाज़ की भींगी हुई बंदिशें
मेरे कानों में छेड़ती तारों को ..
तोड़ती
खनखनाती उन सफ़ेद फूलों को
जिन पर गिरी तुम्हारे पसीने की बूंदे
बन जाती थी मोती मेरी आँखों में
देखो भूलती ही जा रही हूँ न सब ?
हथेलियों पर रखी सुबह
कलाई से उलझती दोपहरिया
और
निर्जन में पड़े उस चाँद को
जो मेरे घर के कोरों को छूता हुआ निकल जाता है
इस भरम में
कि मैंने उसे देखा नहीं
फिर
टूट टूट कर गिरता है मेरे उस आँगन में
जो मेरा था ही नहीं कभी!
 
न जाने क्यों पसरा है
तुम्हारा कुछ भी कहा जाना मेरे ज़ेहन में
जबकि भूल जाने की शर्त में
सबसे आगे होना था
तुमको भुला देना!!