पत्थर के आँसू-1 / कविता भट्ट
मैं एक पत्थर पड़ा किनारे
बहती अविरल समय धारा के
विचरण करता एक शिल्पी आया उधर से
न सम्बन्धी न सगा वह कोई, कौन था मेरा जाने
देखा मुझ संवेदनहीन को उठा लिया झट से
सुन्दर रेखाएँ खिंची देख विचार उठा मन उसके
क्यों न इसको तराशकर एक मूरत बनाई जाए
मन्दिर में कर प्राण-प्रतिष्ठापित जिसे पूजा जाए
सदियों से पड़ा था संग पत्थरों के
अनेक बसन्त, बयार और आईं शीत रातें
नित मिला तिरस्कार और ठोकरें
कभी स्नेह, दिया नहीं किसी ने
न निहारा, न उठाया, न सहलाया,
हथेलियों पर किसी ने न रखा
अहा! बड़ा सौभाग्य मेरा,
ओ बटोही धन्यवाद तेरा।
ले जाकर हथौड़े और छेनी के वार से
तराश लिया उसने मुझे बड़े प्यार से
करवाया स्नान-चंदन-मंडन-अभिनंदन
प्राण-प्रतिष्ठित और मंदिर में वंदन
मैं प्रसन्न यह सब निहार रहा था,
अपने मूर्त्तरूप को दुलार रहा था