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पत्थर को उठाकर / दिनेश जुगरान

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दे चुके हो दस्तक
एक सदी से उन बंद किवाड़ों पर
अब कोई रास्ता नहीं है
मेरी बात मानो
तोड़कर खोल दो उन्हें
और छलांग लगाते हुए
पार कर लो
समय की उस दहलीज को
जिस पर खड़े हुए युग बीत गया है

दस्तक देते-देते
सुन्न पड़ गए हाथों में
गरमी अब केवल
अपने जवान होते बच्चे के
हाथों को छूकर ही आती है
अभी कल ही तो
मैं हार गया था उससे पंजा लड़ाने में
और हाँफ गया था
उसे छूने के प्रयास में

अपने कमज़ोर
और हाँफते हुए अस्तित्व
और खूंटी में टँगी वर्दी के
बीच का फासला
यही क्या इतिहास है!

सपने बासी
शरीर पर वक़्त की जमी हुई काई
आँखों में आदर्शों का पीलापन
अपना इतिहास खुद बुन रहे हैं

औरों की बात नहीं करता मैं
उन्हें शायद
कविता लिखकर
गोली चलाकर
पसीना गूँथकर
अपनी सार्थकता मिल गई हो
लेकिन
किवाड़ तोड़कर
समय की दहलीज पार की हो किसी ने
हो सकता है आपको मिली हो
मुझे नहीं

तुम्हारी आँखों को देखकर
लगता है
तुम्हें अभी भी मुझसे कुछ उम्मीद है
तुम्हें इंतज़ार है
कि शायद मैं
पत्थर को उठाकर
दूर तालाब में फेंकने की एक बार फिर कोशिश करूँ