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पत्थर पर आज दूब ज़माने चला हूँ मैं / कैलाश झा 'किंकर'
Kavita Kosh से
पत्थर पर आज दूब ज़माने चला हूँ मैं
मुमकिन यहाँ है कुछ भी तो गाने चला हूँ मैं।
जो चीज दूर थी वह निकट आ गयी है अब
इक्कीसवीं सदी से निभाने चला हूँ मैं।
तालीम की न फ़िक्र जहाँ है समाज को
उस गाँव में ख़ुशी से पढ़ाने चला हूँ मैं।
अफसर हैं मग्न आज भी रिश्वत के खेल में
यह बात अब सदन में उठाने चला हूँ मैं।
मुट्ठी में है जहाँ की चमकती हरेक शै
मोबाइलों में दृश्य दिखाने चला हूँ मैं
उलझा है "वाद" में जो उसे सूझता नहीं
हर "वाद" की चिता को जलाने चला हूँ मैं।
नफरत की घाटियों में उगे प्यार के सुमन
कश्मीर के भी प्यार को पाने चला हूँ मैं।
"किंकर" तमाम उम्र गुज़र जाए प्यार में
सद्भाव को सँवार के लाने चला हूँ मैं।