भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पत्थर सा तन / पद्मजा शर्मा
Kavita Kosh से
वह लड़की आती
फूलों को देखती
छूती सूंघती
मेरी ओर देखती हुई कहती
‘फूल-पत्थर में फर्क
कैसे कर सकता है कोई छूए बिना’
तब पत्थर-सा
हो जाता मेरा तन
पर खिल उठता था मन
फूल-सा।