भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पत्थर से भी पत्थर निकली सोना बाई / विजय बहादुर सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पत्थर से भी पत्थर निकली सोना बाई
फूटा ढोल कनस्तर निकली सोनाबाई ।

छत माने गाफ़िल बैठे थे हम तो उसको
चूना रेत पलस्तर निकली सोनाबाई ।

मोम का चेहरा काँच की आँखें रँग गुलाबी
सच्चे झूठेअच्छर निकली सोनाबाई ।

जाल बनी जंजाल पसारे क़दम-क़दम पर
जन्तर मन्तर तन्तर निकली सोनाबाई ।

मायामृगी महामायाविनि मन को हरती
माया का मन्वन्तर निकली सोनाबाई ।

इस दुनिया के हर विधान की हंसी उड़ाती
अगड़म बगड़म तगड़म निकली सोनाबाई ।