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पत्थर / शमशाद इलाही अंसारी
Kavita Kosh से
वो देर तक
रेत में अपने पाँव
दबा कर खड़ा़ था।
ये सोच के
कि उसके क़दमों के निशान
थम जाएंगे
ज़मीन के उस कोने पर
जहाँ वो
साँस रोके खडा़ था।
वो कोई बुत नहीं था
जिस पर असर न होता
बदलती फ़िज़ाओं का
बदलते मौसम का
रिश्तों का
तसव्वुर का
फ़िक्रो-फ़न का
आब का
हवा का।
वो ज़िन्दा था
सो हिल गया
अपनी जगह से
और फ़िर हवाओं ने
पानी की तरह बहते रेत ने
मिटा दिए
उसके क़दमों के निशान।
काश कि वो
वहीं खड़े़ खड़े़
एक बुत बन जाता
जम जाता उसी रेत में
और झिड़क देता
हर आंधी का बहाव
रोक देता
पानी की बौछार
और थाम देता
वक़्त की तंग-दिल घडी को।
बना डालता
अपने पाँव के नीचे की ज़मीन को पत्थर
क्योंकि
पत्थरों पर ही
निशान रक़म होते हैं
रेत पर नहीं।
रचनाकाल : 19.06.2005