भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पत्नी और पलाश / अमलेन्दु अस्थाना
Kavita Kosh से
कभी गुसलखाने में बंद होकर सुनो,
अपनी पत्नी की खनकती आवाज,
वो तुम्हारे लिए सूजी का हलवा बना रही है,
याद करो उसके पायल की खनखन
तुम्हारी चौखट पर पहली बार गूंजने से
आज कड़ाही में सूजी भूजने तक की आवाज,
कितना संवारा है उसने तुम्हारी दीवारों को,
तुम सुनो वो तुम्हारे बच्चों के साथ खिलखिला रही है
और तुम्हारे आंगन में रखे गमलों के फूल खिल रहे हैं,
और याद करो जब तकिये में सिर छुपाकर सुबकती है वो
दीवारें खामोश हो जाती हैं,
यह सब सोचते हुए तुम बेचैन हो जाओगे
और गुसलखाने से निकल
समेट लोगे अपनी जिंदगी, अपनी बाहों में
और पा लोगे सारा आकाश, पूरी जमीन।।