भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पत्नी के साथ खांसी की रात / प्रकाश मनु

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रभात अपनी लाल-लाल आंखें निकालकर मुझे न डरा
इस तरह रजाई से बाहर मुंह निकालने में/खौफ़ होता है
मेरी ताकत और रक्त की ताज़गी और आशा रात ने
निचोड़ ली है
रात जो बुरी तरह खांसती है एक अजीब से भयानक अहसास
के साथ-
न सिर्फ कानों के पर्दे फटने लगते बल्कि सामने
जीवन और मौत एकमेक होकर बहुत सर्द दहशत के साथ
झूलते दिखाई देते

पत्नी को शहद मिला सितोपलादि चूर्ण देकर उसे चाटते हुए शांत
देखता हूं तो मन में दोनों हाथ जोड़ सितोपलादि को
नमन करने लगता हूं पर
अन्धकार के पर्दे पर तभी
कुबड़ी छायाएं नाचने लगती हैं
और रात और नंगी-और बेशर्म और घिनौनी और डरावनी
हो जाती है

रात...रात...रात...एक बेवज़ह सिलसिला
कमज़ोरी और कायरता का...
रात मेरे लिये हमेशा बीमार पत्नी हमेशा हमेशा मरी हुई मां
और हमेशा हमेशा राक्षसी हैड का चेहरा है

सर्दी का मौसम है पर मुझे किसी गवाक्ष से
धूप की किरन और उससे नाजुकी से कांपता शीशा नहीं
दिखाई देता
कोई गौरैया मेरी खिड़की पर फीता नहीं बांध जाती
दरवाजा खोलने पर कहीं कोई फूल रखा हुआ नहीं मिलता
सिर्फ मनहूस चेहरे वाली जमादारनी
खुफिया निगाहों से भीतर तक झांक जाती है कि इनके साथ
कोई अच्चा-बच्चा नहीं सामान भी बस यूं ही सा है
कहीं ये कहीं से भागे हुए तो नहीं

बगल की भोथरे चेहरे वाली लिपस्टिक-पुती मिसेज सक्सेना
को सब हाल बतायेगी कि वाकई कहीं कोई बात है
और मैं कल की रोटी चलाने के लिए आज किसी बढ़िया
से टॉपिक पर कुछ लिखूंगा आदमी को चिचियाहट को
बहुत दबाकर...क्यांेकि संपादक उसे नहीं छापते

ढोंग है वक्त साला काला और भयानक-कवियांे का ढोंग है
और मैं भी उसमें एक हूं जो कविता लिखते समय दूसरा
हो जाता हूं और अपने मरे हुए बच्चे को नहीं देख पाता

मैंने कई घंटे, दिन और रोशनी नकारते अपना
मांस नोंचते हुए अपनी मैली रजाई की खोह में जी लिये हैं
और अब सवाल है कि बाहर निकलूं कैसे
बाहर जहां पट्ठा सूरज तप रहा है, जप रहा है
कोई नया जीवन-क्रम और ससुर पहरेदार बनकर
बैठा है जिन्दगी का

लेकिन मुझे उठना ही होगा भूख मुझे भीतर
से चटकाती फोड़ती है और नियति के
दरवाजे पर लाकर छोड़ जाती है
और मेरे भीतर फिर से विचारों की, मरे हुए
स्वप्नों की होड़ लग जाती है:

शायद आज कहीं से अचानक इंटरव्यू का लैटर टपक पड़े
शायद आज किसी पत्रिका में मेरा निबन्ध छपा हो
शायद आज कोई प्रकाशक छापने के लिये मेरे कविता-संग्रह
की पांडुलिपि मांगे
शायद आज देखने पर हैड की चिट्ठी में ‘‘सीरियसली वार्न्ड’’
की जगह कोई फूलनुमा शब्द हो
शायद अब तक सितोपलादि चूर्ण से मेरी बीवी
खांसी से निज़ात पा चुकी हो और उसके लिये
डेढ़-डेढ़ रुपये के कैप्सूल खरीदने की यंत्रणा से बच जाऊं
शायद घर से आज मां की चिट्ठी आये कि वह ज़िन्दा है और
भाई की कि मनीआर्डर भेज रहा है और दोस्त की कि वह मुझे अब भी
चाहता है और मैंने उसके जीवन को नया अर्थ दिया है

शायद टेढ़ी-मेढ़ी चारपाई की बहियां तन जायें और मैं
उस पर एक नयी गृहस्थी की शुरुआत कर सकूं कि जिसमें
मेरी निगाहें कृपालुओं और मनीआर्डरों पर न टिकी
रहें शायद मैं किसी तरह जी जाऊं
अभी दांतेदार दुर्गन्ध के भीतर भी कहीं कुछ शेष है
उसी को बचा लूं

इसलिये मेरे हमेशा के बैरी प्रभात मुझको-एक कायर को
अपनी लाल-लाल आंखें निकाल कर न डरा
या डरा भी तो घिघियाकर अब रजाई से, चारपाई से
छूटने दे और सिर झुकाये दबे पांव
बाथरूम तक जाने दे
ओ प्रभात! मेरे सिरदर्द!!