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पत्नी भी माँ की तरह / भास्कर चौधुरी
Kavita Kosh से
मैं होठों पर जीभ
फेरता हूँ बार-बार
जाने कहाँ से उग आती है पपड़ियाँ
माथे पर चुह्चुहाने लगता है पसीना
सिर्फ कुछ पल गर्म चूल्हे के पास
अपने को पाता हूँ अकेला –
निपट अकेला
चारों तरफ डिब्बों और बर्तनों की भीड़
जैसे कई बरसों से पका रहा हूँ रोटियाँ
जैसे यह गुँथा आटा
कभी होने को नहीं खत्म
जैसे मांजने हों
बेसिन में पड़े अनगिनत
जूठे बर्तन...
माँ बरसों से यही कर रही है...
पत्नी भी माँ की तरह...