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पत्थर / प्रेमशंकर शुक्ल
Kavita Kosh से
झील तल में
पड़ा पत्थर भी पानी की
एक मुकम्मिल दास्तान है । वह भी वहाँ कुछ न कुछ
कर ही रहा होता है अपने पानी के लिए
कहीं वह मछलियों का आश्रय है
कभी वह कीचड़ से बचता हुआ अपनी झील में
कितनी ख़ुशी होती है हमें
जब हम उस पत्थर की पीठ पर बैठ
निहारते हैं बड़ी झील का विहंगम-दृश्य
झील का कितना सगा है यह पत्थर
इसकी आँखों से एक पल भी ओझल नहीं है झील
लहरें खिलखिलाकर जब इसे नहला देती हैं
भीग जाता है भीतर तक यह
आदमी की उदासी और प्रेम के बारे में जानता है यह बहुत
पानी में छुपा पत्थर दरअसल फ़रार है
धन्नाशाह के भय से
कि चुनवा न ले कहीं वह अपनी हवेली में उसे
यह पत्थर झील में इतना रम गया है
कि झील की बात करो तो
हुँकारी में हिला देता है यह
अपना सिर ।