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पथरा चुकी झीलें / राजेन्द्र गौतम

कभी मौसम के पड़ें कोड़े
कभी हाक़िम जड़े साण्टे
खाल मेरे गाँव की
कब तक दरिन्दों से यहाँ खिंचती रहेगी !

दू… …र तक जो
भूख से सहमे हुए सीवान ठिठके हैं
कान में उनके सुबकतीं
प्यास से पथरा चुकी झीलें
रेत के विस्तार में
यों ठूँठ दीखते हैं करीलों के
ज्यों ठुकी गणदेवता की काल-जर्जर देह में कीलें !

खुरपियों को कब इजाज़त
धूप में भी रुक सकें पलभर
जाड़ियाँ भिंचती अगर हैं प्यास से भिंचती रहेंगी

चान्दनी पीकर
अन्धेरा गेंहुअन-सा ताँता फन
झोंपड़ी भयभीत सिमटी
चाहती इज़्ज़त बचाना
वक़्त का मद्यप दरोगा रोज़ आकर डाँट जाता
टपकता
ख़ूनी नज़र से
जब इरादा क़ातिलाना

रक्त अब तो
बून्द-भर बूढ़ी शिराओं में बचा होगा
क्यारियाँ उनके गुलाबों की
इसी से ही सदा सिंचती रहेंगी