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पथ-पारस से / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
उगने लगा सवेरा रे
जलने लगा अन्धेरा रे
चल राही हो चुका बहुत अब तेरा रैन-बसेरा रे
विहग-प्रयाण गीत ने खोली सकल दिशाओं की पलकें
गूँथ रही है सुबह किरन-कर से निशि की बिखरी अलकें
पथ पर रात न भर जाए
त्म आघात न कर जाए
उषा सुन्दरी कस पीताम्बर लूट न जाए लुटेरा रे
भय है कायरता का बाना निर्भयता आशा की कल
मंज़िल है ज़िन्दगी साँस के इकतारे पर गाता चल
तूफ़ाँ के निर्मम तट पर
चट्टानों की चौखट पर
समय बनाता आया पथ के परवानों का डेरा रे
विपति कसौटी है जीवन की दृढ़ता ही है आलम्बन
चलते-चलते पथ पारस से कंचन कर दे लौह-बदन
सदा सुबह मुस्कायेगी
रात नहीं डस पाएगी
पहल पथिक साहस की बिजली बादल घिरा घनेरा रे