पथ गामिनी / कविता पनिया
तुम इतने अग्रसोची कैसे हो गए
हमारे बीच कुछ अकथनीय रह गया
तुम्हारे अंतःपुर के द्वार पर कुंडी लगी है
जिसे मैंने कई बार खटखटया था
मैं जनना चाहती थी
उस मौन को उस अनंत शांति को
जिसे तूफान किनारे से टकराने से पहले भंग करता है
कानन का वह कंटकाकीर्ण
हिस्सा जहाँ मेरा आंचल का कुछ हिस्सा आज भी उलझा है
ऐसा लगता है किंवदंती भी की बार चरितार्थ हो जाती हैं
इसलिए मैं तुम्हारी अनुगामिनी बन चल पड़ी
तुम मुझे नवागत समझ पथ प्रदर्शित करते रहे
उस क्षण मेरा प्रेम तुम्हारे प्रति अरिमेय था
तुम मेरे दिग्दर्शक बने रहे
इस अनुभूति में की मेरा हर पग तुम्हारे पीछे चल रहा है
सहज ही तुम हम चलते रहे
आज हम जिस राह पर हैं
वहाँ से नदी ,पहाड़ ,सागर ,कानन सब दूर हैं
यह धरा का कौनसा छोर है
जहाँ से चिकीर्षा बलवती होती है
हम दोनों ही मुमुक्षु की भांति
अतिरिक्त संसार में भ्रमण कर रहे हैं
जहाँ सिर्फ मेरे और तुम्हारे पद चाप सुनाई दे रहे हैं
अब हम सहगामी बन गए हैं
यहीं से हमारी नई यात्रा का प्रारंभ हो गया है