भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पथ में / माखनलाल चतुर्वेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यौवन की पुकार करते हो, जीने दो दरकार नहीं,
रूप-राशि का दम भरते हो, मुझे किन्तु एतबार नहीं,
नहीं सीपियों पर ललचूँगी, मुझे चाहिए वे मोती,
भूतल हीतल अंतरतल में जगमग हो जिनकी जोती,

चाँदी-सोने मकराने की व्यर्थ झोलियाँ ले आये,
चमक और कीमत पर भूले, निष्ठुरता पर ललचाये,
जो हीतल को शीतल कर दे, जहाँ पुकारूँ मिल जाये,
मीठे जलवाली मिट्टी की कलशी कहाँ छोड़ आये!
सूरत देखी, मूरत देखी,
देखे शान मान एहसान,
प्राण-प्रतिष्ठा करूँ बताओ पाऊँ कहाँ प्रेम-भगवान!

रचनाकाल: खण्डवा-१९२१