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पद्मा के पद को पाकर हो / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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पद्मा के पद को पाकर हो
सविते, कविता को यह वर दो।
वारिज के दृग रवि के पदनख
निरख-निरखकर लहें अलख सुख;
चूर्ण-ऊर्मि-चेतन जीवन रख
हृदय-निकेतन स्वरमय कर दो।
एक दिवस के जीवन में जय,
जरा-मरण-क्षय हो निस्संशय,
जागे करुँणा, अक्षतपश्चय,
काल एक को सुकराकर हो।
मेरी अलक धूलिपग पोंछे,
श्रम शरीर का पलक अँगोछे,
उठें ऊर्ध्व मन से जो ओछे,
मिलें निलय में एक प्रकर दो।

दुख के सुख जियो, पियो ज्वाला,
शंकर की स्मर-शर की हाला।
शाशि के लाञ्छन हो सुन्दरतर,
अभिशाप समुत्कल जीवन-वर
वाणी कल्याणी अविनश्वर
शरणों की जीवन-पण माला।
उद्वेल हो उठो भाटे से,
बढ़ जाओ घाटे-घाटे से।
ऐंठो कस आटे-आटे से,
भर दो जीकर छाला-छाला।

धाये धाराधर धावन हे !
गगन-गगन गाजे सावन हे !
प्यासे उत्पल के पलकों पर
बरसे जल धर-धर-धर-धर-धर,
शीकर – शीकर से श्रम पीकर;
नयन – नयन आये पावन हे !
श्याम दिगन्त दाम-छबि छायी,
बही अनुत्कुण्ठित पुरवाई,
शीतलता-शीतलता आयी,
प्रियतम जीवन-मन भावन हे !

आयीं कल जैसी पल
खिंचे-खिंचे रहे सकल।
स्यन्दन नभ से उतरा,
हुआ स्पन्द और खरा,
निखरी जो दृष्टि परा,
दिखे दिव्य नयनोत्पल।
काँपे दिग्वास तरुण,
लहरा निश्वास अरुण,
हुई धरा करुण-करुण,
जागा यौवन, मंगल।

कमल – कमल युगपदतल,
नील सरोवर जल, थल।
ऊर्मिल मृदु गन्ध हास,
भू पर फैला प्रकाश,
छाया दिड्मधुर वास,
प्रतिपल कलकल कलकल।
खुली हुई केशराशि,
दृष्टि राम-श्याम भासि,
जीवन की मरण-पाशि,
समाश्वासि काशी कल।

मरा हूँ हजार मरण
पायी तब चरण-शरण।
फैला जो तिमिर-जाल
कट-कटकर रहा काल,
आसुओं के अंशुमाल,
पड़े अमित सिताभरण।
जल-कलकल-नाद बढ़ा,
अन्तर्हित हर्ष कढ़ा,
विश्व उसी को उमड़ा,
हुए चारु-करण सरण।

अरघान की फैल,
मैली हुई मालिनी की मृदुल शैल।
लाले पड़े हैं,
हजारों जवानों कि जानों लड़े हैं;
कहीं चोट खायी कि कोसों बढ़े हैं,
उड़ी आसमाँ को खुरीधूल की गैल-
अरघान की फैल।
काटे कट काटते ही रहे तो,
पड़े उम्रभर पाटते ही रहे तो,
अधूरी कथाओं,
कटारी व्याथाओं,
फिरा जीं जबानें कि ज्यों बाल में बैल।

रँग रँग से यह गागर भर दो,
निष्प्राणों को रसमय कर दो।
माँ, मानस के सित शतदल को
रेणु-गन्ध के पंख खिला दो,
जग को मंगल मंगल के पग
पार लगा दो, प्राण मिला दो;
तरु को तरुण पत्र-मर्मर दो।
खग को ज्योतिःपुञ्ज प्रात दो
जग-ठग को प्रेयसी रात दो,
मुझको कविता का प्रपात दो,
अविरत मारण-मरण हाथ दो,
बँधे परों के उड़ते वर दो !
छेड़ दे तार तू पुनर्वार
फिर हो अरण्य में चरणचार।

फिर घाटी-घाटी से बँधकर
वातुल घूमें झूमकर भँवर,
प्राणों की पावनता भरकर
खोले स्वर की सुन्दर विचार।
जङ्गम को जड़, जड़ को जङ्गम
कर दे, भर दे सम और विषम,
उठते गिरते स्वर के निरुपम
सरिगम तोड़ें दुर्दम चहार।

आज मन पावन हुआ है,
जेठ में सावन हुआ है।
अभी तक दृग बन्द थे ये,
खुले उर के छन्द थे ये,
सुजल होकर बन्द थे ये,
राम अहिरावण हुआ है।
कटा था जो पटा रहकर,
फटा था जो सटा रहकर,
डटा था जो हटा रहकर,
अचल था, धावन हुआ है।

सुख के दिन भी याद तुम्हारी
की है, ली है राह उतारी।
उपवन में यौवन के निरलस
बैठी थी, तनमन विरस-विरस,
आये लाख बार बासे, बस
हुई दशा सारी की सारी।
मेरे मानस को उभारकर
अन्तर्धान हो गये सत्वर,
उठी अचानक मैं जैसे स्वर,
कोकिल की काकली सँवारी।

कृष्ण कृष्ण राम राम,
जपे हैं हज़ार नाम।
जीवन के लड़े समर,
डटे रहे, हारे स्तर,
स्मर के शर के मर्मर,
गये, पुनः जिते धाम।

ऐसे उत्थान-पतन,
भरा हुआ है उपवन,
प्राणों का गमागमन,
हैं प्रमाण से प्रणाम।
दिखे दित्य सभी लोक
शोकहर विटप अशोक,
नैश चन्द्र और कोक,
आकर्षण या विराम।

उर्ध्व चन्द्र, अधर चन्द्र,
माझ मान मेष मन्द्र।
क्षण-क्षण विद्युत प्रकाश,
गुरु गर्जन मधुर भास,
कुज्झटिका अट्टहास,
अन्तर्दृग विनिस्तन्द्र।
विश्व अखिल मुकुल-बन्ध,
जैसे यतिहीन छन्द,
सुख की गति और मन्द,
भरे एक-एक रन्ध्र।