भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पद / 3 / गिरिराज कुवँरि
Kavita Kosh से
हो प्यारी लागै श्याम सुँदरिया।
कर नवनीत नैन कजरारे, उँगरिन सोहै मुँदरिया॥
दो दो दशन अधर अरुणारे, वालत बैन तुतरिया।
सोहै अंग चन्दनी कुरता, सिर पै केश बिखरिया॥
गोल कपोल डिठोना माये, भाज तिलक मन-हरिया।
घुटुअन चलत नवल तन मंडित, मुख में मेलै उँगरिया॥
यह छबि देखि मगन महतारी, लग नहि जात नजरिया।
भूख लगी जब ठिनकन लागे, गहि मैया की चुँदरिया॥
जाको भेद वेद नहिं पावत, वाको खिलावै गुजरिया।
धन यशुमति धनि धनि ब्रजनायक, धनि धनि गोप नगरिया॥
संवत् 1980 में श्रीमती जी का स्वर्गवास हो गया।
