पद संख्या 109 तथा 110
(109)
कस न करहु करूना हरे! दुखहरन मुरारि!
त्रिबिधताप-संदेह-सोक-संसय-भय-हारि।1।
इक कलिकाल-जनित मल, मतिमंद, मलिन-मन।
तेहिपर प्रभु नहिं कर सँभार, केहि भाँति जियै जन।2।
सब प्रकार समरथ प्रभो, मैं सब बिधि दीन।
यह जिय जानि द्रवौ नहीं, मैं करम बिहीन।3।
भ्रमत अनेक जोनि रघुपति, पति आन न मोरे।
दुख-सुख सहौं , रहौं सदा सरनागत तोरे।4।
तो सम देव न कोउ कृपालु, समझौं मनमाहीं।
तुलसिदास हरि तोषिये, सो साधन नाहीं।5।
(110)
कहु केहि कहिय कृपानिधे! भव-जनित बिपति अति।
इंद्रिय सकल बिकल सदा, निज निज सुभाउ रति।1।
जे सुख-संपति, सरग-नरक संतत सँग लागी।
हरि! परिहरि सोइ जतन करत मन मोर अभागी।2।
मैं अति दीन, दयालु देव सुनि मन अनुरागे।
जो न द्रवहु रघुबीर धीर, दुख काहे न लागे।3।
जद्यपि मैं अपराध-भवन, दुख-समन मुरारे।
तुलसिदास कहँ आस यहै बहु पतित उधारे।4।