विनयावली / तुलसीदास / पद 121 से 130 तक / पृष्ठ 1
पद संख्या 121 तथा 122
(121)
श्री हे हरि! यह प्रभु की अधिकाई।
देखत, सुनत, कहत, समुझत संसय-संदेह न जाई।1।
जो जग मृषा ताप -त्रय- अनुभव होइ कहहु केहि लेखे।
कहि न जाय मृगबारि सत्य, भ्रम ते दुख होइ बिसेखे।2।
सुभग सेज सोवत सपने, बारिधि बूड़त भय लागै।
कोटिहूँ नाव न पार पाव सो, जब लगि आपु न जागै।3।
अनबिचार रमनीय सदा, संसार भयंकर भारी।
सम-संतोष-दया-बिबेेक तें, ब्यवहारी सुखकारी।4।
तुलसिदास सब बिधि प्रपन्च जग, जदपि झूठ श्रुति गावै।
रधुपति- भगति, संत-संतति बिनु, को भव-त्रास नसावै।5।
(122)
मैं हरि साधन करइ न जानी।
जस आमय भेषज न कीन्ह तस, दोष कहा दिरमानी।1।
सपने नृप कहँ घटै बिप्र-बध , बिकल फिरै अघ लागे।
बाजिमेध सत कोटि करै नहिं सुद्ध होइ बिनु जागे।2।
स्त्रग महँ सर्प बिपुल भलदायक, प्रगट होइ अबिचारे।
बहु आयुध धरि, बल अनेक करि हारहिं , मरइ न मारे।3।
निज भ्रम ते रबिकर-सम्भव सागर अति भय उपजावै।
अवगाहत बोहित नौका चढ़ि कबहूँ पार न पावै।4।
तुलसिदास जग आपु सहित जब लगि निरमूल न जाई।
तब लगि कोटि कलप उपाय करि मरिय, तरिय नहिं भाई।5।