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पद 121 से 130 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 2

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पद 123 से 124 तक

 (123)

अस कछु समझि परत रधुराया!
बिनु तव कृपा दयालृ! दास-हित! मेह न छूटै माया।1।

बाक्य-ग्यान अत्यंत निपुन भव-पार न पावै कोई।
 निसि गृहमध्य दीपकी बातन्ह, तम निबृत नहिं होई।2।

जैसे कोइ इक दीन दुखित अति असन-हीन दुख पावै।
चित्र कलपतरू कामधेनु गृह लिखे न बिपति नसावै।3।

षटरस बहुप्रकार भोजन कोउ, दिन अरू रैनि बखानै।
बिनु बोले संतोष-जनित सुख खाइ सोइ पै जानेै।4।

जबलगि नहिं निज हदि प्रकास , अरू बिषय -आस मनमाहीं।
तुलसिदास तबलगि जग-जोगि भ्रमत सपनेहुँ सुख नाहीं।5।

 (124)

जौ निज मन परिहरै बिकारा।
तौ कत द्वैत-जनित संसृति-दुख, संसय, सोक अपारा।1।

 सत्रु, मित्र , मध्यस्थ, तीनि ये, मन कीन्हें बरिआई।
त्यागन, गहन, उपेच्छनीय, अहि, हाटक तृनकी नाई।2।

असन ,बसन, पसुु बस्तु बिबिध बिधि सब मनि महँ रह जैसे ।
सरग, नरक, चर -अचर लोक बहु, बसत मध्य मन तैसे।3।

बिटप-मघ्य पुतरिका, सूत महँ कंचुकि बिनहिं बनाये।
मन महँ तथा लीन नाना तनु, प्रगटत अवसर पाये।4।

 रघुपति-भगति-बारि-छालित-चित, बिनु प्रयास ही सूझै।
 तुलसिदास कह चिद-बिलास जग बूझत बूझै।5।ं