पद 123 से 124 तक
 (123)
अस कछु समझि परत रधुराया! 
बिनु तव कृपा दयालृ! दास-हित! मेह न छूटै माया।1। 
बाक्य-ग्यान अत्यंत निपुन भव-पार न पावै कोई।
 निसि गृहमध्य दीपकी बातन्ह, तम निबृत नहिं होई।2। 
जैसे कोइ इक दीन दुखित अति असन-हीन दुख पावै। 
चित्र कलपतरू कामधेनु गृह लिखे न बिपति नसावै।3। 
षटरस बहुप्रकार भोजन कोउ, दिन अरू रैनि बखानै। 
बिनु बोले संतोष-जनित सुख खाइ सोइ पै जानेै।4। 
जबलगि नहिं निज हदि प्रकास , अरू बिषय -आस मनमाहीं। 
तुलसिदास तबलगि जग-जोगि भ्रमत सपनेहुँ सुख नाहीं।5।
 (124)
जौ निज मन परिहरै बिकारा। 
तौ कत द्वैत-जनित संसृति-दुख, संसय, सोक अपारा।1।
 सत्रु, मित्र , मध्यस्थ, तीनि ये, मन कीन्हें बरिआई। 
त्यागन, गहन, उपेच्छनीय, अहि, हाटक तृनकी नाई।2। 
असन ,बसन, पसुु बस्तु बिबिध बिधि सब मनि महँ रह जैसे । 
सरग, नरक, चर -अचर लोक बहु, बसत मध्य मन तैसे।3। 
बिटप-मघ्य पुतरिका, सूत महँ कंचुकि बिनहिं बनाये। 
मन महँ तथा लीन नाना तनु, प्रगटत अवसर पाये।4।
 रघुपति-भगति-बारि-छालित-चित, बिनु प्रयास ही सूझै।
 तुलसिदास कह चिद-बिलास जग बूझत बूझै।5।ं