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पद 21 से 30 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 2

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पद 23 से 24 तक

(23)
सब सोच-बिमोचन चित्रकूट। कलिहरन, करन कल्यान बूट।1।

सुचि अवनि सुहावनि आलबाल। कानन बिचित्र, बारी बिसाल।2।

मंदाकिनि-मालिनि सदा सींच। बर बारि, बिषम नर-नारि नीच।3।

साखा सुसृंग, भूरूह -सुपात। निरझर मधुबरद्व मृदु मलय बात।4।

सुक,पिक, मधुकर, मुनिबर बिहारू। साधन प्रसून फल चारि चारू।5।

भव-घोरघाम-हर सुखद छाँह। थप्यो थिर प्रभाव जानकी-नाह।6।

साधक-सुपथिक बड़े भाग पाइ। पावत अनेक अभिमत अघाइ।7।

रस एक, रहित-गुन-करम-काल। सिय राम लखन पालक कृपाल।8।

तुलसी जो राम पद चाहिय प्रेम। सेइय गिरि करि निरूपाधि नेम।9।

(24)
स्अब चित चेति चित्रकूटहि चलु।

कोपित कलि, लोपित मंगल मगु, बिलसत बढ़त मोह माया-मलु।।

भूमि बिलोकु राम-पद-अंकित, बन बिलोकु रघुबर - बिहारथलु।।

 सैल-सृंग भवभंग -हेतु लखु, दलन कपट -पाखंड-दंभ-दलु। ।

जहँ जनमे जग-जनक जगतपनि, बिधि-हरि-हर परिहरि प्रपंच छलु।।

सकृत प्रबेस करत जेहि आस्त्रम, बिगत-बिषाद भये परथ नलु।।

न करू बिलंब बिचारू चारूमति, बरष पाछिले सम अगिले पलु।

पुत्र सेा जाइ जपहि, जो जपि भे, अजर अमर हर अचइ हलाहलु।।

रामनाम-जप जाग करत नित, मज्जत पय पावन पीवत जलु।

करिहैं राम भावतैा मनकौ, सुख-साधन, अनयास महाफलु।ं

कामदमनि कामता, कलपतरू से जुग-जुग जागत जगतीतलु।

तुलसी तोहि बिसेषि बूझिये, एक प्रतिति, प्रीति एकै बलु।।