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पद 221 से 230 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 4

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पद संख्या 227 तथा 228

 (227)

नास राम रावरोई हित मेरे।
स्वारथ-परमारथ साथिन्ह सों भुज उठाइ कहौं टेरे।1।

जनकी-जनक तज्यो जनमि, करम बिनु बिधिहु सृज्यो अवडरे।
मोहुँसो कोउ-कोउ कहत रामहि को , सो प्रसंग केहि केरे।2।

 फिर्यौ ललात बिनु नाम उदर लगि, दुखउ दुखित मोहि हेरे।
नाम-प्रसाद लहत रसाल -फल अब हौं बबुर बहेरे। 3।

साधत साधु लोक-परलोकहि, सुनि गुनि जतन घनेरे।
तुलसीके अवलंब नामको, एक गाँठि कइ फेरे।4।

(228)

प्रिय रामनामतें जाहि न रामो।
ताको भलो कठिन कलिकालहुँ आदि -मध्य -परिनामो।1।

सकुचत समुझि नाम-महिमा मद-लोभ-मोह-कोह-कामो।
 राम-नाम-जप-निरत सुजन पर करत छाँह घोर घामो।2।

नाम-प्रभाउ सही जो कहै कोउ सिला सरोरूह जामो।
जो सुनि सुमिरि भाग-भाजन भइ सुकृतसील भील-भामो।3।

बालमीकि -अजामिल के कछु हुतो न साधन-सामो।
उलटे पलटे नाम-महातम गुंजनि जितो ललामो।4।

रामतें अधिक नाम-करतब, जेेहि किये नगर-गत गामो।
भये बजाइ दाहिने जो दपि तुलसिदाससे बामो।5।