विनयावली / तुलसीदास / पद 251 से 260 तक / पृष्ठ 4
पद संख्या 257 तथा 258
(257)
दीनबंधु ! दूरि किये दीनको न दूसरी सरन।
आपको भले हैं सब, आपने को कोऊ कहूँ, सबको भलो है राम! रावरो चरन।1।
पाहन, पसु, पतंग, कोल, भील, निसिचर , काँच ते कृपानिधान किये सुबरन।
दंडक-पुहुमि पाय परसि पुनीत भई, उकठे बिटप लागे फूलन-फरन।2।
पतित-पावन नाम बाम हू दाहिनो, देव! छुनी न दुसह-दुख-दूषन-दरन।
सीलसिंधु ! तोसों ऊँची-नीचियौ कहत सोभा, तोसो तुही तुलसीको आरति-हरन।3।
(258)
जानि पहिचानि मैं बिसारे हौं कृपानिधान! एतो मान ढीठ हौं उलटि देत खोरि हौं।
करत जतन जासों जोरिबे को जोगीजन, तासों क्योंहू जुरी , सेा अभागो बैठो तोरि हौं।1।
मोसो दोस-कोसको भुवन-कोस दूसरो न, आपनी समुझि सूझि आयो टकटोरि हौं।
गाड़ी के स्वानकी नाईं, माया मोह की बड़ाई , छिनहिं तजत, छिन भजत बहोरि हौं।2।
बड़ो साईं-द्रोही न बराबरी मेरीको कोऊ , नाथकी सपथ किये कहत करोरि हौं।
दूरि कीजै द्वारतें लबार लालची प्रपंची, सुधा-सो सलिल सूकरी ज्यों गहडोरिहौं।3।
रखिये नीके सुधारि, नीचको डारिये मारि, दुहूँ ओरकी बिचारि , अब न निहोरिहौं।
तुलसी कही है साँची रेख बार बार खाँची, ढील किये नाम-महिमाकी नाव बोरिहौं।4।