पद 271 से 279 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 1
पद संख्या 271 तथा 272
(271)
जैसो हौं तैसो राम रावरो जन, जनि परिहरिये।
कृपासिंधु , कोसलधनी! स्रपागत-पालक, ढरनि आपनी ढरिये।1।
हौं तौ बिगरायल और को, बिगरो न बिगारिये।
तुम सुधारि आये सदा सबकी सबही बिधि, अब मेरियो सुधरिये।2।
जग हँसिहै मेरे संग्रहे , कत इहि डर डरिये।
कपि-केवट कीन्हे सखा जेहि सील, सरल चित, तेहि सुभाउ अनुसरिये।3।
अपराधी तउ आपनो , तुलसी न बिसरिये।
टूटियो बाँह गरे परै , फूटेहु बिलेाचन पीर होत हित करिये।4।
(272)
तुम जनि मन मैलो करो, लोचन जनि फेरो।
सुनहु राम! बिनु रावरे लोकहु परलाकहु कोउ न कहूँ हितु मेरो।1।
अगुन-अलायक-आलसी जानि अधम अनेरो।
स्वारथ के साथिन्ह तज्यो तिजराको -सो टोटक, औचट उलटि न हेरो।2।
भगतिहीन, बेद -बाहिरो लखि कलिमल घेरो।
देवनिहू देव! प्रिहरयो, अन्याव न तिनको हौं अपराधी सब केरो।3।
नामकी ओट पेट भरत हौं ,पे कहावत चेरो।
जगत-बिदित बात ह्वै परी , समुझिये धौं अपने, लोक कि बेद बड़ेरो।4।
ह्वैहै जब -तब तुम्हहिं तें तुलसीको भलेरो।
दिन-हू-दिन दे! बिगरि है, बलि जाउँ, बिलंब किये, अपनाइये सबेरो।5।