विनयावली / तुलसीदास / पद 41 से 50 तक / पृष्ठ 3
पद 45 से 46 तक
(45)
श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन
हरण भवभय दारूणं।
नवकंज लोचन ,कंज-मुख ,
कर-कंज पद कंजारूणं।
कंदर्प अगणित अमित छवि,
नवनील नीरद सुंदरं।
पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि
नौमि जनक सुतावरं।।
भजु दीनबंधु दिनेश
दानव-दैत्य-वंश-निकंदनं।
रघुनंद आनँदकंद कोशलचंद
दशरथ-नंदनं।।
सिर मुकुट कुंडल तिलक चारू
उदारू अंग विभुषणं।
आजानुभुज शर-चाप-धर,
संग्राम-जित-खरदूषणं।।
इति वदति तुलसीदास शंकर-
शेष-मुनि-मन-रंजनं।
मम हृदय कंज निवास करू,
कामादि खल दल गंजनं।।
(46)
श्रीराम सदा
राम जपु, राम जपु, राम जपु, राम जपु, राम जपु, मूढ़ मन, बार बारं।
सकल सौभाग्य-सुख-खानि जिय जानि शठ, मानि विश्वास वद वेदसारं।।
कोशलेन्द्र नव-नीलकंजाभतनु, मदन-रिपु-कंजहृददि-चंचरीकं।
जानकीरवन सुखभवन भुवनैकप्रभु, समर-भंजन, परम कारूनीकं।।
दनुज-वन-धूमधुज, पीन आजानुभुज, दंड-कोदंडवर चंड बानं।
अरूनकर चरण मुख नयन राजीव, गुन-अयन, बहु मयन-शोभा-निधानं।।
वासनावृंद-कैरव-दिवाकर, काम-क्रोध-मद-कंज-कानन-तुषारं।ं
लोभ अति मत्त नागेन्द्र पंचाननं भक्तहित हरण संसार-भारं।।
केशवं, क्लेशहं, केश-वंदित पद-द्वंद्व मंदाकिनी-मूलभूतं।।
सर्वदानंद-संदोह, मोहपहं, घोर-संसार-पाथोधि-पोतं।।
शोक-संदेह-पाथोदपटलानिलं, पाप-पर्वत-कठिन-कुलिशरूपं।
संतजन-कामधुक-धेनु, विश्रामप्रद, नाम कलि-कलुष-भंजन अनूपं।।
धर्म-कल्पद्रुमाराम, हरिधाम-पभि संबलं, मूलमिदमेव एकं।
भक्ति-वैराग्य-विज्ञान-शम-दान-दम, नाम आधीन साधक अनेकं।।
तेन नप्तं, हुतं, दत्तमेवाखिलं, तेन सर्वं कृतं कर्मजालं।
येन श्रीरामनामामृतं पानकृतमनिशमनवद्यमवलोक्य कालं।
श्रवपच,खल, भिल्ल, यवनादि हरिलोकगत,
नामबल विपुल मति मल न परसी।
त्यागि सब आस, संत्रास, भवपास, असि निसित हरिनाम जपु दासतुलसी।।