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राग केदारा
रङ्ग-भूमि भोरे ही जाइकै |
राम-लषन लखि लोग लूटिहैं लोचन-लाभ अघाइकै ||
भूप-भवन, घर घर, पुर बाहर, इहै चरचा रही छाइकै |
मगन मनोरथ-मोद नारि-नर, प्रेम-बिबस उठैं गाइकै ||
सोचत बिधि-गति समुझि, परसपर कहत बचन बिलखाइकै |
कुँवर किसोर, कठोर सरासन, असमञ्जस भयो आइकै ||
सुकृत सँभारि, मनाइ पितर-सुर, सीस ईसपद नाइकै |
रघुबर-करधनु-भङ्ग चहत सब अपनो सो हितु चितु लाइकै ||
लेत फिरत कनसुई सगुन सुभ, बूझत गनक बोलाइकै |
सुनि अनुकूल, मुदित मन मानहु धरत धीरजहि धाइकै ||
कौसिक-कथा एक एकनिसों कहत प्रभाउ जनाइकै |
सीय-राम सञ्जोग जानियत, रच्यो बिरञ्चि बनाइकै ||
एक सराहि सुबाहु-मथन बर बाहू, उछाह बढ़ाइकै |
सानुज राज-समाज बिराजिहैं राम पिनाक चढ़ाइकै ||
बड़ी सभा बड़ो लाभ, बड़ो जस, बड़ी बड़ाई पाइकै |
को सोहिहै, और को लायक रघुनायकहि बिहाइकै?||
गवनिहैं गँवहिं गवाँइ गरब गृह नृपकुल बलहि लजाइकै |
भलीभाँति साहब तुलसीके चलिहैं ब्याहि बजाइकै ||