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जनक बिलोकि बार-बार रघुबरको |
मुनिपद सीस नाय, आयसु-असीस पाय,
एई बातैं कहत गवन कियो घरको ||
नीन्द न परति राति, प्रेम-पन एक भाँति,
सोचत, सकोचत बिरञ्चि-हरि-हरको |
तुम्हते सुगम सब देव! देखिबेको अब
जस हंस किए जोगवत जुग परको ||
ल्याए सङ्ग कौसिक, सुनाए कहि गुनगन,
आए देखि दिनकर कुल-दिनकरको |
तुलसी तेऊ सनेहको सुभाउ बाउ मानो
चलदलको सो पात करै चित चरको ||