पद 81 से 90 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 4
पद 87 से 88 तक
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सुनु मन मूढ़ सिखावन मेरो।
हरि-पद-बिमुख लह्यो न काहु सुख, सठ! सह समुझ सबेरो।1।
बिछुरे ससि -रबि मन नैननितें, पावत दुख बहुतेरो।
भ्रमत श्रमित निसि-दिवस गगन महँ, तहँ रिपु राहु बड़ेरो।2।
जद्यपि अति पुनीत सुरसरिता, तिहुँ पुर सुजस घनेरो।
तजे चरन अजहूँ न मिटत नित, बहिबो ताहू केरो।3।
छुटै न बिपति भजे बिनु रघुपति, श्रुति संदेहु निबेरो।
तुलसिदास सब आस छाँड़ि करि, होहु
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कबहूं मन विश्राम न मान्यो।
निसदिन भ्रमत बिसारि सहज-सुख, जहँ तहँ इंद्रिन-तान्यो।1।
जदपि बिषय-सँग सह्यो दुसह दुख, बिषम जाल अरूझान्यो।
तदपि न तजत मूढ़ ममताबस, जानतहूँ नहिं जान्यो।2।
जनम अनेक किये नाना बिधि करम-कीच, चित सान्यो।
होइ न बिमल बिबेक-नीर बिनु, बेद पुरान बखान्यो।3।
निज हित नाथ, पिता गुरू हरिसों हरषि हदै नहिं आन्यो।
तुलसिदास कब तृषा जाय सर खनतहि जनम सिरान्यो।4।
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