पनघट पर हरि करत अचगरी।
ग्वाल-सखा लै संग छरिन तैं ढुरकावत, फोरत जल-गगरी॥
हँसि-हँसि, हो-हो करि दिखरावत आँखि, करत सब मधुर मसखरी।
आगें-पाछें धाय, आय सामुहे, ठाढ़ ह्वै रोकत डगरी॥
भर्ईं ग्वालिनीं बिकल सकल, पै मन मुसुकात मुदित ह्वै सगरी।
बोलीं-’अरे ऊधमी लाला! क्यौं नित करौ बात ये लँगरी’॥