पनघट / बैद्यनाथ पाण्डेय 'कोमल'
पनघट पर छम-छम से उतरल
पनिहारिन के मेला।
रंग-रंग के रंगल चुनरिया
परियन के मन मोहे;
कोई काजर भर अँखियन में
‘उन’ अँखियन के जोहे;
रूप निहारे चुपके आइल
झट संझिया के बेला।
भरल घड़ा के रसरी खींचत
खन् खन् चूड़ी बाजे;
आँचर से बा लाख छिपावत
कोई जोबन लाजे;
मगर भला कतनो कइला पर
यौवन कहीं छिपेला?
सरकि-सरकि के कबो रेशमी
अँचरा नीचे आवे;
अरे मौन गुदगुदी लगाके
सूतल मदन जगावे;
देख-देख करिया लट-नागिन
मनवाँ सिहर उठेला।
अरे झाँझ के झनक कबो
छाड़ा के ठनक सुनाता;
कबहूँ कंगन घनर-घनर सुन
खुद सौन्दर्य चिहाता;
इनरा भी नीरव बन-बन के
मधुमय राग सुनेला।
चलल एक के बाद एक
लागल फिर लामी पाँती;
देखनहार बनल रह जाला
बेहाला दिन राती;
केकर माँग कहाँ कइसन बा
ई के कहे-सुनेला?
पनघट पर छम-छम से उतरल
पनिहारिन के मेला।