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पनप रही जो कौंध पौध-सी / कात्यायनी
Kavita Kosh से
खेल-खेल में पढ़ना सीखा
हेल-मेल में लिखना
लोकलाज से डरकर सीखा
सभ्य-सुशीला दिखना।
कटे हुए पंखों से सीखा
स्वप्न बाँधकर उड़ना।
कारागृह की दीवारों से
जान लड़ाकर लड़ना।
समर शेष है, दूर क्षितिज
तक, अभी अँधेरा काला।
पनप रही जो कौंध पौध-सी
यह जीवन का पाला।
कल बसन्त का दूत दे गया
सहसा दस्ती चिट्ठी।
बीच युद्ध में अम्मा को
बेटे की चुम्मी मिठ्ठी।
रचनाकाल : अप्रैल, 2001