पन्द्रहवीं ज्योति - वीणा / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
वीणे! किस लिए निरन्तर
झंकार किया करती हो?
क्यों अपनी स्वर-लहरी में
ही मस्त बनी रहती हो?॥1॥
मिल गयी तुम्हें क्या कोई
अनुपम अमूल्य निधि प्यारी!
जिससे उर की कम्पन में
भर गयी मधुरिमा प्यारी॥2॥
मादक संगीत भरा है
कैसा कोमल तारों में!
आकर्षण अमित निराला
कैसा मृदु झंकारों में॥3॥
एकान्त शान्त कोने में
मधुमय झंकार तुम्हारी
सुनकर विमुग्ध हो जाती
यह वाह्य सृष्टि भी सारी॥4॥
मारुत मधु बोल चुराकर
प्रति पल भगता रहता है।
जग के कोने-कोने को
मुखरित करता रहता है॥5॥
तरु-पल्लव लता, बेलियाँ
झुक झूम-झूम उठती हैं।
सरिताएँ भर उमंग में
कल-कल निनाद करती हैं॥6॥
क्या जग के बन्धन तुमको
हैं कभी न तनिक सताते?
क्या अपनी शक्ति-प्रबलता
तुमको वे नहीं दिखाते?॥7॥
हाँ, इस जगती की तुमको
क्या लेश-मात्र भी चिन्ता?
क्यों हो? तुम कर लेती हो
अपने वश विश्व-नियन्ता॥8॥
जिसके जीवन का मृदु स्वर
हो गया मधुर मिलकर है।
उसके वश विश्व-नियन्ता
स्वर में ही तो ईश्वर है॥9॥
सचमुच एक ही सरस स्वर
में मिलकर तार तुम्हारे!
जब मधुर-मधुर बजते हैं
लगते वे कितने प्यारे!॥10॥
यदि जगत् सीख ले तुम से
मिलकर रहना आली री!
तो हो जाये इसका भी
जीवन प्रभावशाली री॥12॥
उसमें भी आ सकती है
कोमलता, सरस मधुरता।
जिससे मिट सकती है सब
वैमनस्य भाव की कटुता॥13॥
यदि हिलमिल कर रहने की
क्षमता उसमें आ जाये।
तो फिर क्यों विश्व-विनाशक
विग्रह का अवसर आये॥14॥