भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पन्द्रह अगस्त: 1947 / दिनेश दास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरी दोनों आँखों में छलछलाता है
पद्मा का अजस्र जल,
छलछलाती है मेघना की पुकार,
बादलों के प्रवाह की तरह स्तम्भित ... अवाक।

धूसर शहर में उठती है पुकार
दुपहरी में हवा बिखेरती है अवसाद
छिन्नमस्ता बस रक्त का आस्वाद करती रहती है।
सूखे पत्ते-सा उड़ आया स्वाधीन सनद,
सीने में बसी पद्मा से दूर सिन्धुनद
यहाँ मेरी आँखों में उठाता है लहरें,
फिर भी बढ़ता जाता है मुक्ति का प्रवाह
करोमण्डल के सीवान और साँवले मालाबार के कछार पर
गरजता है हिन्द-महासागर ।

यहाँ तो शंख की आरी से
चाक हो जाते हैं दिन आरी के दाँतों से
सीवान पर धब्बों की शक़्ल में
जमे हुए ख़ून के निशान हैं --
लंका का बँटवारा करता है कालनेमि ।

फिर भी आया स्वाधीनता का दिन
उजला रंगीन,
प्राणों के आवेग से व्याकुल --

पुकारती है माँ पद्मा
पुकारते हैं पिता सिन्धु-तीर।

मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी