पन्द्रह घाव / नाज़िम हिक़मत / अनिल जनविजय
(यह नाज़िम हिकमत की पहली कविता है, जो उन्होंने तुर्की की कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक मुस्तफ़ा सुबही और उनके चौदह साथियों की स्मृति में 1921 में लिखी थी, जिन्हें 28 जनवरी 1921 को तुर्की के बन्दरगाह ’त्रापेजुन्द’ के क़रीब काले सागर में डुबकियाँ दे-देकर मार डाला गया था।)
मेरी छाती पर लगे हैं पन्द्रह घाव
पन्द्रह चाकू
हत्थों तक घुसा दिए गए मेरी छाती में
पर धड़क रहा है
और धड़केगा दिल
बन्द नहीं हो सकती उसकी धड़कन !
मेरी छाती पर हैं पन्द्रह घाव
और उनके चारों ओर घोर काला अन्धेरा
काले सागर का पानी
लिपटा है उनके चारों तरफ़
चिकने साँपों की तरह कुण्डलाकार
वे मेरा दम घोंट देंगे
मेरे ख़ून से रंग देंगे
काले जल को
मेरी छाती में आ घुसे हैं पन्द्रह छुरे
लेकिन फिर भी धड़क रहा है दिल
मेरी छाती के भीतर !
मेरी छाती पर लगे हैं पन्द्रह घाव
पन्द्रह बार बेधा गया मेरा सीना
सोचते रहे वे कि छेद दिया दिल
लेकिन धड़कता रहा वह
बन्द नहीं होगी धड़कन !
मेरी छाती में जला दिए पन्द्रह अलाव
तोड़ दिए पन्द्रह चाकू मेरी छाती में
लेकिन दिल है कि धड़क रहा है
लाल पताका की तरह
धड़केगा, धड़कता रहेगा
बन्द नहीं होगी धड़कन !
1921
रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय