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पन्द्रह साल / प्रभात
Kavita Kosh से
कहाँ हैं वे हरी आँखें
गुलाबी होंठ
मीठी गीली आवाज़
बरखा ऋतु की पुरवाइयों-सी चाल-ढाल
कहाँ यह रूखा खुरदुरा-बेजान
कठोर, असुन्दर आदमी
वह जो प्राकृतिक रंग था त्वचा का उड़ गया था
एक और ही रंग की हो गई थी शरीर की चमड़ी
बीते पन्द्रह सालों की मृतता से बनी
बीते पन्द्रह सालों की जीवन्तता से बनी होती
यह चमड़ी
कोई और ही रंग होता इसका
लुभाता हुआ अपनी आब से अपनी प्रियता से
तब एक मलाल की तरह नहीं पुता होता चेहरे पर
काँ पच्चीस, कहाँ चालीस
तब यही छलकता होठों पर
चालीस की उम्र का भी कमबख़्त
एक अपनी ही तरह का असर
एक अपनी ही तरह का आकर्षण होता है
सुनिए तो यह किसकी नींद कराह रही है
कोई ज़रूरत नहीं थी मुझे इन पन्द्रह सालों की