पन्ना / पूनम भार्गव 'ज़ाकिर'
कचरे की टोकरी में
कुछ पन्नों का एक ढेर था
शायद
रद्दी हुआ जज़्बात था
संजो कर खोया हुआ
कोई ख़्वाब था
शायद उसमें
प्रेम कहानी का अंश हो
उसमें विरह लिख दिया गया हो
किसी अनुमान से घबरा गया हो
फट कर
रद्दी की टोकरी में आ गया हो
शायद किसी का
माफ़ीनामा था जो
अहम के वहम में लिपट गया था
मुमकिन है
दम्भ में फाड़ा गया था
शायद
लिखे गए झूठ का पिटारा था
सच छुपाने में नकारा था
कलम से आँसू रिस गए हों
शब्द धुंधले पड़ गये हों
हो सकता है
वो पन्ना
प्रार्थना के क्षणों का साक्षी हो
देवता में आदमी देख
सकुचा गया हो और
स्वम् ही फट गया हो
लिखने और फटने के दरम्याँ
अनेक सम्भावनाओं में लिपटा था
काश
वाक्या जो पन्नों पर लिख जाता
सरकते दिनों के साथ
इतिहास में भी दर्ज़ हो जाता
पर अब वो
कलम, जज़्बात और फैली स्याही में
ठुकराये जाने के दर्द से
लबरेज़ था
अफ़सोस
सारी शुद्ध सम्भावनाओं को धकेल
वो हथेलियों में तुड़ मुड़ गया था
कचरे से होता हुआ
जल गया था या गल गया था
वो पन्ना जो पेड़ की शाखों से चला
इंसान के इरादों से छला
धुंआ हुआ
राख हुआ
हाँ
वही पन्ना
जिसे
आवाजों की भीड़ में
सम्वादों की तलाश थी!