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पपीहा बोल उठा / रामगोपाल 'रुद्र'

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पपीहा बोल उठा पी कहाँ! पी कहाँ!

पूरबी जंगलों में सुब्‍ह जो आग लगी,
शाम के घोंसलों में चीख-पुकार जगी
ज्वाल का जोल उठा पी कहाँ! पी कहाँ!

चित्‍त पर ज्वार चढ़ा, स्वप्न की नाव तिरी,
याद के मेह लिये मावसी रात घिरी,
दर्द पर तोल उठा पी कहाँ! पी कहाँ!

कह की टीस उठी, सिल का दिल चाक हुआ,
साँस पर कर्ज़ लिया सब्र बेबाक हुआ;
मौन मुँह खोल उठा पी कहाँ! पी कहाँ!

सच कहो, मेरे सनम! तुम भी क्या चुप ही रहे?
तब जो यह टेर सुनी, किसने दी, कौन कहे!
किसका मन डोल उठा पी कहाँ! पी कहाँ!

किसलिए चोंच खुली, खोखले सीप खुले?
पुज सकी चाह कहाँ स्वाति के वज्र घुले?
लोरजल रोल उठा पी कहाँ! पी कहाँ!

क्यों न वह दाह सहे, जिसने यह राह सुनी!
व्यंग्य ही सबने किया, टेर जो 'पी' की सुनी!
शून्य ठठोल उठा पी कहाँ! पी कहाँ!