पब से निकली लड़की / अंजू शर्मा
पब से निकली लड़की
नहीं होती है किसी की माँ, बेटी या बहन,
पब से निकली लड़की का चरित्र
मोहताज हुआ करता है घडी की तेजी से
चलती सुइयों का,
जो अपने हर कदम पर कर देती हैं उसे कुछ और काला,
पब से निकली लड़की के पीछे छूटी
लक्ष्मणरेखाएं हांट करती हैं उसे जीवनपर्यंत,
जिनका लांघना उतनी ही मायने रखता है जितना कि
उसे नैतिकता का सबक सिखाया जाना,
पब से निकली लड़की अभिशप्त होती है एक सनसनी में
बदल जाने के लिए,
उसके लिए गुमनामी की उम्र उतनी ही होती है
जितनी देर का साथ होता है
उसके पुरुष मित्रों का,
पब की लड़की के कपड़ों का चिंदियों में बदल जाना
उतना ही स्वाभाविक है कुछ लोगों के लिए,
जैसे समय के साथ वे चिन्दियाँ बदल जाती हैं
'तभी तो', 'इसीलिए' और 'होना ही था' की प्रतिक्रियाओं में,
पब से निकली लड़की के,
ताक पर रखते ही अपना लड़कीपना,
सदैव प्रस्तुत होते हैं 'कचरे' को बुहारते 'समाजसेवी'
कचरे के साथ बुहारते हुएउसकी सारी मासूमियत अक्सर
वे बदल जाते हैं सिर्फ आँख और हाथों में,
पब से निकली लड़की की आवाजें,
हमेशा दब जाती हैं
अनायास ही मिले
चरित्र के प्रमाणपत्रों के ढेर में,
पब से निकली लड़की के ब्लर किये चेहरे पर
आज छपा है एक प्रश्न
कि उसका ३० मिनट की फिल्म में बदलना
क्या जरूरी है समाज को जगाने के लिए
वह पूछती है सूनी आँखों से
क्या जरूरी है...
उसके साथ हुए इस व्याभिचार का
सनसनी में बदलना
या जरूरी है
कैमरा थामे उन हाथों का
आगे बढ़ एक सहारे में बदल जाना...