परछाइयाँ पहाड़ों की / महेश सन्तोषी
पहाड़ों की परछाइयाँ पहाड़ों पर हम दूर तक देखते रहे
और ऐसा भी लगा जैसे
परछाइयों का एक पहाड़ पास से गुज़र गया!
गुज़र गयी एक पूरी की पूरी उम्र
कुछ नाम, कुछ अनाम, पहाड़ों की छाँहों में,
इनकी तलहटियों में बनती थीं प्यार की पगडण्डियाँ
बनते थे बाँहों के पुल, हथेलियों की नावें, तृप्तियों की अथाहों में,
वो दिन आये-गये अब बहुत दिन बीत गये
समय तक रहा अनसुना,
जो अधरों के चुम्बनों से कहा-सुना गया!
परछाइयों का एक पहाड़ पास से गुजर गया!
पत्थरों पर जमी बर्फ, पत्तों पर थमें सावन,
कहीं वृक्षों से ढकी-ढकी, कहीं वृक्षहीन,
अस्थिर मौसमों के ये स्थिर साक्षी से
ये निस्सीम समय के दर्पण असीम,
हम प्यार का क़द नापते रहे इनकी ऊँचाइयों-निचाइयों के बीच,
कहाँ गयी वो गोरी सुबह, वो सुनहरी दुपहरियाँ?
वह साँझ का सिन्दूर कहाँ गया?
परछाइयों का एक पहाड़ पास से गुजर गया!
हमने पास से देखा भी, जिया भी, पत्थरों से जुड़ा जीवन-दर्शन,
कागजों पर खिंचीं कोरी रेखाएँ भर नहीं थीं
ज़िन्दगी के हर मोड़ पर मिले प्रस्तर,
हम खोजते भी रहे और निरन्तर पूछते भी रहे
सहनशीलता के यथार्थ के अर्थ,
पर, साधनारत पर्वतों से नहीं मिला कोई उत्तर,
पहाड़ांे ने हमें मूल्य दिये, मर्यादाएँ दीं
मन को छूती काँपती हवाएँ दीं,
इनने क्या-क्या नहीं दिया हमको?
चिन्तन की दिशा दी, हर रोज दिया एक दर्शन नया,
परछाइयों का एक पहाड़ पास से गुजर गया!