भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
परछाईं / कल्पना पंत
Kavita Kosh से
बेचैन धरती घूमती है
घूमते हैं बेचैन ग्रह
चक्राकार घूमते हैं चक्के
इच्छाएं कम नहीं होतीं ।
इच्छाओं की फाँस तले
ग्रहों, उपग्रहों की भाँति
घूम रहे हम सब
जहाँ से चलते हैं
फिर वहीं पहुँच जाते हैं
सुबह के अख़बारों के दर्शनीय
श्रीमन्त साँझ ढले जब घर जाते हैं
अपनी ही परछाईं से डर जाते हैं ।