परछाई / मोहन कुमार डहेरिया
खड़ी है जो लोहे के गेट पर हाथों की कोहनी टिकाए
वह एक परछाई है
कसमसा रही है इसके होंठों के पीछे तुम्हारी मुस्कुराहट की पंखुड़ियाँ
बेहद मुलायम हैं इसके अंदर तुम्हारे क्रोध की लपटें
गिलहरी के नन्हे बच्चे की तरह फुदकती है इसके भीतर तुम्हारी विकट शरारतें
मैदानी नदी की तरह संकोची और धीमी है अभी इसकी चाल
रहा होगा कभी पहाड़ जैसा तुम्हारा दुःख
उदास होती जब यह
नजर आती रात के हल्के अंधियारे में लिपटे टीले जैसी
बेहद सुंदर है यह
जब-जब देखता हूँ लगता यही
अफसोस परन्तु सिर्फ इतना
मेरे रक्त की बूँदों से नहीं बनी है यह परछाई
नहीं बैठी मेरी पीठ पर यह बनाकर घोड़ा
इसके बोलचाल, व्यवहार में नहीं है मेरी परवरिश के निशान
चूँकि यह एक परछाई है
चढ़ता जब आसमान में सूर्य
बढ़ने लगता कद इसका
दिखाई देने लगते शरीर के सारे अंग साफ और स्पष्ट
देख यह जोरों से उठता मेरे सीने में दर्द
और याद आता है
ओह ! कितने दिन हो गए हैं हमें बिछुड़े हुए
कितने दिन हो गए हैं
गीत गाते हुए अंधड़ की तरह नहीं दाखिल हुआ हूँ मैं तुम्हारे अंदर
आँख मींचे पेड़ की तरह नहीं डाली है तुमने अपनी बाँहों की डालें मेरे गले में।