परती का गीत / अज्ञेय
सब खेतों में
लीकें पड़ी हुई हैं
(डाल गये हैं लोग)
जिन्हें गोड़ता है समाज।
उन लीकों की पूजा होती है।
मैं अनदेखा
सहज
अनपुजी परती तोड़ रहा हूँ
ऐसे कामों का अपना ही सुख है :
वह सुख अपनी रचना है
और वही है उस का पुरस्कार।
उस का भी साझा करने को
मैं तो प्रस्तुत-
उसे बँटाने वाला ही दुर्लभ है! उस को भी तो
लीक छोड़ कर आना होगा
(यदि वह सुख
उस का पहचाना होगा)
पर तब उस के आगे भी
बिछी हुई होगी वैसी ही परती।
बहुत कड़ी यह बहुत बड़ी है धरती।
मैं गाता भी हूँ। उस के हित
मेरे गाने से वह एकाकी भी बल पाता है।
किन्तु अकेला नहीं। दूसरे सब भी।
उन के भीतर भी परती है
उस पर भी एक प्रतीक्षा-शिलित अहल्या
सोती है
जिस को मेरे भीतर का राम
जगाता है।
मैं गाता हूँ! मैं गाता हूँ!
नयी दिल्ली, 9 अगस्त, 1979