परदादी की दादी का नाम / अरुणा ढेरे / मीना त्रिवेदी
परदादी की दादी का नाम तक मैं नहीं जानती ।
घाघरे की झूल को कमर से बान्धे, गाते - गुनगुनाते
जिन शाखों से लटक कर वो झूली होगी
वो बरगद भी मैंने नहीं देखा ।
जिन पत्थरों पर धोए उसने अपने मासिकस्राव के कपड़े,
जिस नदी का पानी हुआ लाल-भूरा-काला
वो पत्थर, वो नदी भी मुझे मालूम नहीं ।
जब पहली बार वो कराही सम्भोग के बाद काली सुन्न रात में
वो स्वर सुख से भरा था या दर्द की कराह
ये भी मैं नहीं जानती ।
जचगी के समय जो चीख़ फूटी होगी उसके गले से
उसकी छाती से बार-बार छलकता अमृत भी मैंने नहीं चखा ।
उसने कुएँ से पानी जो निकाला
उन घड़ों को भी मैंने न उठाया
उसने जीवन का सूत्र जो समझा, मैंने नहीं बूझा ।
उसकी जान जाते-जाते कैसे गई, किसमें अटकी नहीं मालूम ।
कौन रोया उसके पीछे, किसका मन कचोटा उसके अपनों में पता नहीं ।
उसकी विरासत किसने बाँटी, किसने झूठी करके फेंक दी पता नहीं ।
किसने उसके पीछे क्या संकल्प किया, कौन इतराया
किसने सराहा, किसने भुलाया, मालूम नहीं ।
सिर्फ उसकी शख़्सियत की राख को उड़ाती हवा बह रही है...
एक लम्बी साँस बनकर मेरी छाती में ये अटकी हुई है ।
पृथ्वी, जल, प्रकाश, वायु, आकाश
ये ही तो होती है शाखाएँ कालातीत अश्वत्थों (पीपल का पेड़ अथवा बोधि वृक्ष) की ।
मूल मराठी से अनुवाद : मीना त्रिवेदी